बहू कहने लगी – खटाई किसी को नहीं दी जायेगी , यह तो संतोषी माता का प्रसाद है । लड़के तुरन्त उठ खड़े हुये, बोले पैसा लाओ । भोली बहू कुछ जानती नहीं थी सो उन्हें पैसे दे दिये । लड़के उसी समय जा करके इमली ला खाने लगे । यह देखकर बहू पर संतोषी माता जी ने कोप किया । राजा के दूत उसके पति को पकड़कर ले गये । जेठ-जिठानी मनमाने खोटे वचन कहने लगे – लूट-लूटकर धन इकट्ठा कर लाया था सो राजा के दूत पकड़कर ले गये । अब सब मालूम पड़ जायेगा जब जेल की हवा
खायेगा ।


बहू से यह वचन सहन नहीं हुए । रोती-रोती माता के मंदिर में गई । हे माता । तुमने यह क्या किया । हँसाकर अब क्यों रुलाने लगी । माता बोली – पुत्री । तूने उघापन करके मेरा व्रत भंग किया है, इतनी जल्दी सब बातें भुला दीं । वह कहने लगी- माता भूली तो नहीं हूँ, न कुछ अपराध किया है । मुझे तो लड़कों ने भूल में डाल दिया । मैंने भूल से उन्हें पैसे दे दिये, मुझे क्षमा र दो मां। माँ बोली ऐसी भी कहीं भूल होती है । वह बोली मां मुझे माफ कर दो, मैं फिर तुम्हारा उघापन करुंगी । मां बोली – अब भूल मत करना । वह बोली – अब न होगी, माँ अब बतलाओ वह कैसे आयेंगे । माँ बोली – जा पुत्री । तेरा पति तुझे रास्ते में ही आता मिलेगा । वह घर को चली । राह मं पति आता मिला । उसने पूछा – तुम कहां गये थे । तब वह कहने लगा – इतना धन कमाया है, उसका टैक्स राजा ने मांगा था, वह भरने गया था । वह प्रसन्न हो बोली – भला हुआ, अब घर चलो । कुछ दिन बाद फिर शुक्रवार आया ।


वह बोली मुझे माता का उघापन करना है । पति ने कहा करो । वह फिर जेठ के लड़कों से भोजन को कहने गई । जेठानी ने तो एक-दो बातेंसुनाई और लड़कों को सिखा दिया कि तुम पहले ही खटाई मांगना । लड़के कहने लगे-हमें खीर खाना नहीं भाता, जी बिगड़ता है, कुछ खटाई खाने को देना । वह बोली – खटाई खाने को नहीं मिलेगी, आना हो तो आओ । वह ब्राहमणों के लड़के ला भोजन कराने लगी । यथाशक्ति दक्षिणा की जगह एक-एक फल उन्हें दिया । इससे संतोषी माता प्रसन्न हुई । माता की कृपा होते ही नवें मास उसको चन्द्रमा के समान सुन्दर पुत्र प्राप्त हुआ ।

पुत्र को लेकर प्रतिदिन माता जी के मन्दिर में जाने लगी । मां ने सोचा कि यह रोज आती है, आज क्यों न मैं ही इसके घर चलूं । इसका आसरा देखूं तो सही । यह विचार कर माता ने भयानक रुप बनाया । गुड़ और चने से सना मुख, ऊपर सूंड के समान होंठ, उस पर मक्खियां भिन-भिना रहीं थी । देहलीज में पाँव रखते ही उसकी सास चिल्लाई – देखो रे । कोई चुड़ेल डाकिन चली आ रही है । लड़कों इसे भगाओ, नहीं तो किसी को खा जायेगी । लड़के डरने लगे और चिल्लाकर खिड़की बंद करने लगे । छोटी बहु रोशनदान में से देख रही थी, प्रसन्नता से पगली होकर चिल्लाने लगी – आज मेरी मात जी मेरे घर आई है । यह कहकर बच्चे को दूध पिलाने से हटाती है । इतने में सास का क्रोध फूट पड़ा । बोली रांड । इसे देखकर कैसी उतावली हुई है जो बच्चे को पकट दिया । इतने में माँ के प्रताप से जहाँ देखो वहीं लड़के ही लड़के नजर आने लगे । वह बोली – माँ जी, मैं जिनका व्रत करती हूँ यह वही संतोषी माता है । सबने माता के चरण पकड़ लिये और विनती कर कहने लगे – हे माता । हम मूर्ख है, हम अज्ञानी है पापी है । तुम्हारे व्रत की विधि हम नहीं जानते, तुम्हारा व्रत भंग कर हमने बहुत बड़ा अपराध किया है । हे माता । आप हमारा अपराध क्षमा करो । इस प्रकार माता प्रसन्न हुई । माता ने बहू को जैसा फल दिया वैसा सबको दे । जो पढ़े उसका मनोरथ पूर्ण हो । बोलो संतोषी माता की जय ।


आरती संतोषी माता की
जय सन्तोषी माता, जय सन्तोषी माता।
अपने सेवक जन को, सुख सम्पति दाता॥ जय ..
सुन्दर चीर सुनहरी माँ धारण कीन्हों।
हीरा पन्ना दमके तन सिंगार लीन्हों॥ जय ..
गेरु लाल जटा छवि बदन कमल सोहे।
मन्द हसत करुणामयी त्रिभुवन मन मोहै॥ जय ..
स्वर्ण सिंहासन बैठी चँवर ढुरे प्यारे।
धूप दीप मधु मेवा, भोग धरे न्यारे॥ जय ..
गुड़ और चना परम प्रिय तामे संतोष कियो।
सन्तोषी कहलाई भक्तन विभव दियो॥ जय ..
शुक्रवार प्रिय मानत आज दिवस सोही।
भक्त मण्डली छाई कथा सुनत मोही॥ जय ..
मन्दिर जगमग ज्योति मंगल ध्वनि छाई।
विनय करे हम बालक चरनन सिर नाई॥ जय ..
भक्ति भाव मय पूजा अंगी कृत कीजै।
जो मन बनै हमारे इच्छा फल दीजै॥ जय ..
दु:खी दरिद्री रोगी संकट मुक्त किये।
बहु धन धान्य भरे घर, सुख सौभाग्य दिए॥ जय ..
ध्यान धरो जाने तेरौ मनवांछित फल पायौ।
पूजा कथा श्रवण कर उर आनन्द आयौ॥ जय ..
शरण गहे की लज्जा राख्यो जगदम्बे।
संकट तूही निवारे, दयामयी अम्बे॥ जय ..
संतोषी माँ की आरती जो कोई जन गावै।
ऋषि सिद्धि सुख संपत्ति जी भर के पावै॥ जय ..
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