शुक्रवार (सन्तोषी माता) व्रत कथा

विधि – इस व्रत को करने वाला कथा कहते वे सुनते समय हाथ में गुड़ व भुनेहुए चने रखें । सुनने वाला सन्तोषी माता की जय । सन्तोषी मात की जय । मुखसे बोलते जायें । कथा समाप्त होने पर हाथ का गुड़ चना गौ माता को खिलावें। कलश में रखा हुआ गुड़ चना सबको प्रसाद के रुप में बांट दें । कथा सेपहले कलश को जल से भरें । उसके ऊपर गुड़ चने से भरा कटोरा रखें । कथासमाप्त होने और आरती होने के बाद कलश के जल को घर में सब जगह छिड़कें औरबचा हुआ जल तुलसी की क्यारी में डाल देवें । व्रत के उघापन में अढाई सेरखाजी, मोमनदार पूड़ी, खीर, चने का शाक, नैवेघ रखें, घी का दीपक जला संतोषीमाता की जय जयकारा बोल नारियल फोड़ें । इस दिन घर में कोई खटाई न खावे औरन आप खावे न किसी दूसरे को खाने दें । इस दिन 8 लड़कों को भोजन करावे,देवर, जेठ, घर कुटुम्ब के लड़के मिलते हो तो दूसरों को बुलाना नहीं ।कुटुम्ब में न मिले तो ब्राहमणों के, रिश्तेदारों या पड़ोसियों के लड़केबुलावें । उन्हें खटाई की कोई वस्तु न दें तथा भोजन कराकर यथाशक्तिदक्षिणा देवें ।


कथा–  एक बुढ़िया थी और उसके सात पुत्र थे । छः कमाने वाले थे, एक निकम्मा था । बुढ़िया मां छहों पुत्रों की रसोई बनाती, भोजन कराती और पीछे से जो कुछ बचता सो सातवें को दे देती थी । परन्तु वह बड़ा भोला-भाला था, मन में कुछ विचार न करता था । एक दिन अपनी बहू से बोला – देखो । मेरी माता का मुझ पर कितना प्या र है । वह बोली – क्यों नही, सबका जूठा बचा हुआ तुमको खिलाती है । वह बोला – भला ऐसा भई कहीं हो सकता है । मैं जब तक आँखों से न देखूं, मान नहीं सकता । बहू ने हँसकर कहा – तुम देख लोगे तब तो मानोगे । कुछ दिन बाद बड़ा त्यौहार आया । घर में सात प्रकार के भोजन और चूरमा के लड़डू बने । वह जांचने को सिर-दर्द का बहाना कर पतला कपड़ा सिर पर ओढ़कर रसोई घर में सो गया और कपड़े में से सब देखता रहा । छहो भाई भोजन करने आये । उसने देखा माँ ने उनके लिये सुन्दर-सुन्दर आसन बिछाये है । सात प्रकार की रसोई परोसी है । वह आग्रह करके जिमाती है, वह देखता रहा । छहो भाई भोजन कर उठे तब माता ने उनकी जूठी थालियों में से लड़डुओं के टुकड़ों को उठाया और एक लड्डू बनाया । जूठन साफकर बुढ़िया माँ ने पुकारा – उठो बेटा । छहों भाई भोजन कर गये अब तू ही बाकी है, उठ न, कब खायेगा । वह कहने लगा – माँ, मुझे भोजन नहीं करना । मैं परदेश जा रहा हूँ । माता ने कहा – कल जाता हो तो आज ही जा । वह बोला – हां-हां, आज ही जा रहा हूँ । यह कहककर वह घर से निकल गया । चलते समय बहू की याद आई । वह गोशाला में उपलें थाप रही थी, वहीं जाकर उससे बोला –

हम जावें परदेश को आवेंगे कुछ काल ।
तुम रहियो संतोष से धरम आपनो पाल ।।
वह बोली जाओ पिया आनन्द से हमरुं सोच हटाय ।
राम भरोसे हम रहें ईश्वर तुम्हें सहाय ।।
देख निशानी आपकी देख धरुँ मैं धीर ।
सुधि हमारी मति बिसारियो रखियो मन गंभीर ।।

वह बोला – मेरे पास तो कुछ नहीं, यह अंगूठी है सो ले और अपनी कुछ निशानी मुझे दे । वह बोली – मेरे पास क्या है यह गोबर से भरा हाथ है । यह कहकर उसकी पीठ में गोबर के हाथ की थाप मार दी । वह चल दिया । चलते-चलते दूर देश में पहुँचा ।
वहाँ पर एक साहूकार की दुकान थी, वहां जाकर कहने लगा – भाई मुझे नौकरी पर रख लो । साहूकार को जरुरत थी, बोला – रह जा । लड़के ने पूछा – तनखा क्या दोगे । साहूकार ने कहा – काम देखकर दाम मिलेंगे । साहूकार की नौकरी मिली । वह सवेरे सात बजे से रात तक नौकरी बजाने लगा । कुछ दिनों में दुकान का सारा लेने-देन, हिसाब-किताब, ग्राहकों को माल बेचना, सारा काम करने लगा । साहूकार ने 7-8 नौकर थे । वे सब चक्कर खाने लगे कि यह तो बहुत होशियार बन गया है । सेठ ने भी काम देखा और 3 महीने में उसे आधे मुनाफे का साझीदार बना लिया । वह 12 वर्ष में ही नामी सेठ बन गया और मालिक सारा कारोबार उस पर छो़ड़कर बाहर चला गया । अब बहू पर क्या बीती सो सुनो । सास-ससुर उसे दुःख देने लगे । सारी गृहस्थी का काम करके उसे लकड़ी लेने जंगल में भेजते । इस बीच घर की रोटियों के आटे से जो भूसी निकलती उसकी रोटी बनाकर रख दी जाती और फूटे नारियल के खोपरे में पानी । इस तरह दिन बीतते रहे । एक दिन वह लकड़ी लेने जा रही थी कि रास्ते में बहुत-सी स्त्रियाँ संतोषी माता का व्रत करती दिखाई दीं । वह वहाँ खड़ी हो कथा सुनकर बोली – बहिनों । यह तुम किस देवता का व्रत करती हो और इसके करने सेक्या फल ममिलता है । इस व्रत के करने की क्या विधि है । यदि तुम अपने व्रत का विधान मुझे समझाकर कहोगी तो मैं तुम्हारा अहसान मानूंगी ।

तब उनमें से एक स्त्री बोली – सुनो यह संतोषी माता का व्रत है, इसके करने से निर्धनता, दरिद्रता का नाश होता है और लक्ष्मी आती है । मन की चिंतायें दूर होती है । घर में सुख होने से मन को प्रसन्नता और शांति मिलती है । निःपुत्र को पुत्र मिलता है, प्रीतम बाहर गया हो तो जल्दी आवे । क्वांरी कन्या को मनपसन्द वर मिले । राजद्घार में बहुत दिनों से मुकदमा चलता हो तो खत्म हो जावे, सब तरह सुख-शान्ति हो, घर में धन जमा हो, पैसा-जायदाद का लाभ हो, वे सब इस संतोषी माता की कृपा से पूरी हो जावे । इसमें संदेह नहीं । वह पूछने लगी- यह व्रत कैसे किया जावे यह भी बताओ तो बड़ी कृपा होगी । स्त्री कहने लगी – सब रुपये का गुड़ चना लेना, इच्छा हो तो सवा पाँच रुपये का लेना या सवा ग्यारह रुपये का भी सहूलियत अनुसार लेना । बिना परेशानी, श्रद्घा, और प्रेम से जितना बन सके सवाया लेना । सवा रुपये से सवा पांच रुपये तथा इससे भी ज्यादा शक्ति और भक्ति के अनुसार लें । हर शुक्रवार को निराहार रह, कथा कहना – सुनना, इसके बीच क्रम टूटे नहीं, लगातार नियम पालन करना । सुनने वाला कोई न मिले तो घी का दीपक जला, उसके आगे जल के पात्र को रख कथा कहना परन्तु नियम न टूटे । जब तक कार्य सिद्घ न हो, नियम पालन करना और कार्य सिद्घ हो जाने पर ही व्रत का उघापन करना । तीन मास में माता फल पूरा करती है । यदि किसी के खोटे ग्रह हो तो भी माता एक वर्ष में अवश्य कार्य को सिद्घ करती है । उघापन में अढ़ाई सेर आटे का खाजा तथा इसी परिमाण से खीर तथा चने का साग करना । इस दिन 8 लड़कों को भोजन करावे, देवर, जेठ, घर कुटुम्ब के लड़के मिलते हो तो दूसरों को बुलाना नहीं । कुटुम्ब में न मिले तो ब्राहमणों के, रिश्तेदारों या पड़ोसियों के लड़के बुलावें । उन्हें खटाई की कोई वस्तु न दें तथा भोजन कराकर यथाशक्ति दक्षिणा देवें ।

यह सुनकर बुढ़िया के लड़के की बहू चल दी । रास्ते में लकड़ी के बोझ को बेच दिया और उन पैसों से गुड़-चना ले माता के व्रत की तैयारी कर आगे चली और सामने मंदिर देख पूछने लगी – यह मंदिर किसका है । सब कहने लगे – संतोषी माता का मंदिर है । यह सुन माता के मंदिर में जा माता के चरणों में लोटने लगी । दीन होकर विनती करने लगी – माँ मैं निपट मूर्ख हूँ । व्रत के नियम कुछ नहीं जानती । मैं बहुत दुःखी हूँ । हे माता जगजननी । मेरा दुःख दूर कर, मैं तेरी शरण में हूँ । माता को दया आई । एक शुक्रवार बीता कि दूसरे शुक्रवार को ही इसके पति का पत्र आया और तीसरे को उसका भेजा हुआ पैसा भी आ पहुँचा । यह देख जेठानी मुँह सिकोड़ने लगी – इतने दिनों में पैसा आया, इसमें क्या बड़ाई है । लड़के ताने देने लगे – काकी के पास अब पत्र आने लगे, रुपया आने लगा, अब तो काकी की खातिर बढ़ेगी, अब तो काकी बुलाने से भी नहीं बोलेगी ।

बेचारी सरलता से कहती – भैया । पत्र आवे, रुपया आवे तो हम सबके लिये अच्छा है । ऐसा कहकर आंखों में आँसू भरकर संतोषी माता के मन्दिर में आ मातेश्वरी के चरणों में गिरकर रोने लगी – माँ । मैनें तुमसे पैसा नहीं माँगा । मुझे पैसे से क्या काम है । मुझे तो आपने सुहाग से काम है । मैं तो अपने स्वामी के दर्शन और सेवा मांगती हूँ ।

तब माता ने प्रसन्न होकर कहा – जा बेटी, तेरा स्वामी आयेगा । यह सुन खुशी से बावली हो घर में जा काम करने लगी । अब संतोषी माँ विचार करने लगी, इस भोली पुत्री से मैंने कह तो दिया कि तेरा पति आयेगी, पर आयेगा कहाँ से । वह तो स्वप्न में भी इसे याद नहीं करता । उसे याद दिलाने मुझे जाना पड़ेगा । इस तरह माता बुढ़िया के बेटे के पास जा स्वप्न मे प्रकट हो कहने लगी – साहूकार के बेटे । सोता है या जागता है वह बोला - माता । सोता भी नहीं हूँ जागता भी नहीं हूँ, बीच में ही हूँ, कहो क्या आज्ञा है । माँ कहने लगी – तेरा घर-बार कुछ है या नहीं । वह बोला – मेरा सब कुछ है माता । माँ, बाप, भाई-बहिन, बहू, क्या कमी है ।

माँ बोली – भोले पुत्र । तेरी स्त्री घोर कष्ट उठा रही है । माँ-बाप उसे दुःख दे रहे है, वह तेरे लिये तरस रही है, तू उसकी सुधि ले । वह बोला – हाँ माता, यह तो मुजे मालूम है परन्तु मैं जाऊँ तो जाऊँ कैसे । परदेश की बात है । लेन-देन का कोई हिसाब नहीं, कोई जाने का रास्ता नजर नहीं आता, कैसे चला जाऊँ । माँ कहने लगी – मेरी बात मान, सवेरे नहा-धोकर संतोषी माता का नाम ले, घी का दीपक जला, दण्डवत् कर दुकान पर जाना । देखते-देखते तेरा लेन-देन सब चुक जायेगा । जमा माल बिक जायेगा, सांझ होते-होते धन का ढेर लग जायेगा ।
सवेरे बहुत जल्दी उठ उसने लोगों से अपने सपने की बात कही तो वे सब उसकी बात अनसुनी कर दिल्लगी उड़ाने लगे, कहीं सपने भी सच होते है क्या । एक बूढ़ा बोला – देख भाई मेरी बात मान, इस प्रकार सांच झूठ करनेके बदले देवता ने जैसा कहा है वैसा ही करने में तेरा क्या जाता है । वह बूढ़े की बात मान, स्नान कर संतोषी मां को दण्डवत कर घी का दीक जला, दुकान पर जा बैठा । थोड़ी देर में वह क्या देखता है कि सामानों के खरीददार नकद दाम में सौदा करने लगे । शाम तक धन का ढेर लग गया । माता का चमत्कार देख प्रसन्न हो मन में माता का नाम ले, घर ले जताने के वास्ते गहना, कपड़ा खरीदने लगा और वहाँ के काम से निपट कर घर को रवाना हुआ ।

वहाँ बहू बेचारी जंगल में लकड़ी लेने जाती है, लौटते वक्त मां के मन्दिर पर विश्राम करती है । वह तो उसका रोजाना रुकने का स्थान था । दूर से धूल उड़ती देख वह माता से पूछती है – हे माता । यह धूल कैसी उड़ रही है । माँ कहती है – हे पुत्री । तेरा पति आ रहा है । अब तू ऐसा कर, लकड़ियों के तीन बोझ बना ले, एक नदी के किनारे रख, दूसरा मेरे मंदिर पर और तीसरा अपने सिर पर रख । तेरे पति को लकड़ी का गट्ठा देखकर मोह पैदा होगा । वह वहाँ रुकेगा, नाश्ता-पानी बना-खाकर मां से मिलने जायेगा । तब तू लकड़ियों का बोझ उठाकर घर जाना और बीच चौक में गट्ठर डालकर तीन आवाजें जोर से लगाना – लो सासूजी - लकड़ियों का गट्ठा लो, भसी की रोटी दो और नारियल के खोपरे में पानी दो, आज कौन मेहमान आया है ।

माँ की बात सुन, बहू बहुत अच्छा माता । कहकर प्रसन्न हो लकड़ियों के तीन गट्ठे ले आई । एक नदी तट पर, एक माता के मंदिर में रखा, इतने मे मुसाफिर आ पहुँचा । सूखी लकड़ी देख उसकी इच्छा हुई कि अब यहीं विश्राम करे और भोजन बना-खाकर गांव जाये । इस प्रकार भोजन बना विश्राम कर, वह गाँव को गया । सबसे प्रेम से मिला, उसी समय बहू सिर पर लकड़ी का गट्ठा लिये आती है । लकड़ी का भारी बोझ आंगन में डाल, जोर से तीन आवाज देती है लो सासूजी - लकड़ियों का गट्ठा लो, भसी की रोटी दो और नारियल के खोपरे में पानी दो, आज कौन मेहमान आया है ।

यह सुनकर सास बाहर आ, अपने दिये हुये कष्टों को भुलाते हुए कहती है – बहू ऐसा क्यों कहती है, तेरा मालिक ही तो आया है । आ बैठ, मीठा भात खा, भोजन कर, कपड़े –गहने पहिन । इतने में आवाज सुन उसका स्वामी बाहर आता है और अँगूठी देख व्याकुल हो, मां से पूछता है – माँ यह कौन है । मां कहती है – बेटा । यह तेरी बहू है, आज बारह वर्ष हो गए तू जब से गया है तब से सारे गाँव में जानवर की तरह भटकती फिरती है । काम-काज घर का कुछ करती नहीं, चार समय आकर खा जाती है । अब तुझे देखकर भूसी की रोटी और नारियल के खोपरे में पानी माँगती है ।

वह लज्जित हो बोला – ठीक है माँ । मैंनें इसे भी देखा है । और तुम्हें भी देखा है । अब मुझे दूसरे घर की ताली दो तो उसमें रहूं । तब माँ बोली – ठीक है बेटा । तेरी जैसी मर्जी, कहकर ताली का गुच्छा पटक दिया । उसने ताली ले दूसरे कमरे में जो तीसरी मंजिल के ऊपर था, खोलकर सारा सामान जमाया । एक दिन में ही वहाँ राजा के महल जैसा ठाट-बाट बन गया । अब क्या था, वे दोनों सुखपूर्वक रहने लगे । इतने में अगला शुक्रवार आया । बहू ने अपने पति से कहा कि मुझे माता का उघापन करना है ।
पति बोला – बहुत अच्छा, खुशी से करो । वह तुरन्त ही उघापन की तैयारी करने लगी । जेठ के लड़कों को भोजन के लिये कहने गई । उसने मंजूर किया परन्तु पीछे जेठनी अपने बच्चों को सिखलाती – देखो रे । भोजन के समय सब लोग खटाई मांगना, जिससे उसका उघापन पूरा न हो । लड़के जीमने गये, खीर पेट भरकर खाई । परन्तु याद आते ही कहने लगे – हमें कुछ खटाई दो, खीर खाना हमें भाता नहीं,
देखकर अरुचि होती है ।......................................


Sukravaar katha part 2

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